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अध्यात्म-रहस्य जान पड़ती है। परन्तु परके सम्पर्कसे रहित देखनेका यह आशय कदापि नहीं कि सम्पर्कमें आनेवाली परस्प कोई वस्तु है ही नहीं, स्फटिककी उपाधिके सदृश पररूप वस्तु जरूर है और उसीके सम्पर्क-असम्पर्कके कारण ब्रह्मको अशुद्ध तथा शुद्ध कहा जाता है । वह परवस्तु भावकर्म, द्रव्यकर्म तथा नोकर्मके रूपमें त्रिविधरूपा है, जिसके तीनों रूपोंका इस ग्रन्थमें अलग अलग परिचय कराया गया है । अतकी यह जैनदृष्टि अद्वैतके वास्तविक वाच्यको बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। इसके विपरीत वेदान्तियों आदिका जो मत ब्रह्मके विषयमें सर्वथा अद्वैतके एकान्त पक्षको लिये हुए है वह सदोष है । स्वामी समन्तभद्रने उसे अपने निम्न वाक्यों द्वारा दूपित ठहराया है:
अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भदा विरुध्यते । कारकाणा क्रियायाश्च नैक स्वस्मात्प्रजायते ॥२४॥ कर्म-दैतं फल-दैत लोक-द्वैत च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद् बन्ध-माक्ष-द्वयं तथा ॥२५॥ हेतोरद्वैतसिद्विश्चेद् द्वैत स्थाई तु-साध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धि द्वैतं वाड मात्रतो न किम् ॥२६॥ अद्वैतं न विना तादहेतुरिव हेतुना । संझिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेभ्याहते क्वचित् ॥२७॥ (देवागम) इन कारिका-वाक्योंका आशय इस प्रकार है: