________________
anananalaptinami
सन्मति-विद्या प्रकाशमाला छोड़कर वचनके अगोचर, अनश्वर-ज्योतिका स्वयं अवलोकन करना चाहिये । .. . , , , ii .व्याख्या यहाँ पिछले पद्यमें दिये गये उपदेशको 'कुछ आगे बढ़ाया गया है और ऐसा भाव व्यक्त किया गया है कि 'मैं ही में हूँ' इस अन्तर्जल्प (भीतरी पातचीत) से सम्बद्ध आत्मज्ञानकी कल्पनामें ही न उलझे रहना चाहिये किन्तु उस आत्मज्योतिको स्वयं देखना भी चाहिये, जो कि अनिर्वचनीय होनेके साथ साथ कमी नाश न होनेवाली है। और इस तरह यहाँ स्वात्मदर्शन की भावनाको खास तौरसे प्रोत्साहन दिया गया है ।
आत्म-दर्शनका उपाय .. यद्यदुल्लिखति स्वान्तं तत्तदस्वतया' त्यजेत् । तथा विकल्पानुदये दोद्योत्यात्माच्छचिन्मये ॥२०॥ ___ 'हृदय जिम-जिसका उल्लेख करता-चित्र खींचताहै उस-उसको अनात्माकी दृष्टिसे-यह आत्मा नहीं, ऐसा समझ कर छोड़ना चाहिये । उर्स प्रकारके विकल्पोंके उदय न होने पर 'आत्मा अपने स्वच्छ चिन्मयरूपमें प्रकाशमान होता है।
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस-आत्मदर्शनकी प्रेरणा की गई, है उसका प्रयत्न करते समय हृदय जो जो चित्र सामने १ परवस्तुतया ।