________________
सन्मति विद्या प्रकाशमाला
३०
हूँ, मैं यह करता हूँ, मैं यह भोगता हूँ, इस प्रकारकी चेतना - चिन्तनाको ( हे भाई ! ) तुम छोड़ो ।'
व्याख्या -- यहाँ स्वात्माको श्रपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिर तथा दृढ करनेके लिये यह उपदेश दिया गया है कि वह 'एकमात्र मैं ही मैं हूँ — अन्य मैं नहीं हूँ — इस श्रात्म 'ज्ञानसे भिन्न अन्यत्र - - शरीरादिक्रमें अपनी चेतनाको
-
न भ्रमावे | अर्थात् 'यह शरीरादिक मैं हूँ, शरीरादिकी अमुक क्रिया मैं करता हूँ, अमुक भोग मैं भोगता हू' इस प्रकार की चिन्तना अथवा विचारणाको छोडे, क्योंकि इस प्रकारकी विचार धाराएँ पर - पदार्थ के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करती है और इस तरह अपने उस शुद्ध आत्मज्ञानमें बाधक होती हैं । इसीसे समाधितंत्र में श्रीपूज्यपादाचार्यने कहा है कि - 'आत्मज्ञानसे भिन्न अन्य कार्य को चिरकाल तक बुद्धिमें धारण नहीं करना चाहिये, यदि प्रयोजन-वश कुछ समय के लिये उसे वचन तथा कायसे करना भी पड़े तो तत्परता - अनासक्तिके साथ करना चाहिये - आसक्त होकर नहीं:
1
आत्मज्ञानात्पर कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् । कुर्यादर्थवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ॥५०॥ इसी भावको पुष्ट करनेके लिये आचार्य महोदयने आगे यह भी लिखा है