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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला हैं, फलतः अनेक प्रकारके कर्मवन्धनोंसे बँधकर अन्तको दुखी होते हैं। . . कर्मजनित सुख-दुःखकी कल्पना अविद्या है । बन्धतः सुगतौ खाथैः सुखाय दुर्गतौ मुहुः। : दुःखाय चेत्यविद्यैव मोहाच्छेद्याद्य विद्यया ॥२६ * 'सुगतिका बन्ध होनेसे उसमें इन्द्रियों के विषयोंद्वारा बार-बार सुखकी प्राप्ति होती है, और दुर्गतिका बन्ध होनेसे उसमें वार-बार दुखकी प्राप्ति होती है, ऐसा समझना मोहके कारण-मोहके उदयवश-अविद्या ही है। यह अविद्या अत्र विद्यासे छेदन की जानी चाहिये।
व्याख्या-यहाँ कर्मवन्धको सुगतिकी प्राप्ति होनेपर इन्द्रिय-विपयोंके लाभसे सुखका कारण और दुर्गतिकी प्राप्ति होनेपर इन्द्रिय-विपयोंके अलामसे दुखका कारण माननेको अविद्या बतलाया है और उस अविद्याका कारण मोह ठहराया है। क्योंकि मोहके उदयवश ही यह अज्ञानी प्राणी बंधनको भी, जिसमें पराधीनता होती है, सुखका हेतु समझता है, परपदार्थोको सुख-दुखका दाता मानता है और इन्द्रिय-विषयोंको भी सुखरूप समझता है। जब कि वे वास्तवमें सुखरूप नहीं हैं; जैसा कि कुन्दकुन्दाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:'', सपरं बाधासहियं विच्छिएणं बंधकारणं विसमं ।
जं इंदिएहि लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा।। (प्रवचनसार ७६)