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अध्यात्म-रहस्य कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
रागद्वेषादि-कल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्व वत्तत्त्व नेतरो जनः ॥३५॥(समाधितंत्र)
शुद्धात्मस्वरूपमे लीन योगीकी निर्भयता शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप एव लीनः कुतोऽपि न । बिभेति परमानन्द एव विन्दति भावकम् ॥५८॥
'शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप परमानन्दमें लीन हुआ योगी किसीसे भी भयको पास नहीं होता । किन्तु वह निर्भय हुआ भावकका-परमानन्दका-ही अनुभव करता रहता है।'
व्याख्या-यहाँ अपने शुद्ध-बुद्ध-चिदानन्दमयी रूपमें लीन होनेके फलको दर्शाया है और यह बतलाया है कि.ऐसा स्वात्मलीन योगी किसीसे भी भयको प्राप्त नहीं होता--- चाहे किसीके द्वारा कैसा भी उपद्रव क्यों न किया जाता हो-वह परमानन्दरूप आत्मरसका ही आस्वादन करता रहता है। ___ यहाँ जिस 'परमानन्द'का उल्लेख है उसके विषयमें श्रीपूज्यपादाचार्यके इष्टोपदेश-गत निम्न दो वाक्य खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं:
आत्माऽनुष्ठान-निष्ठस्य व्यवहार-बहिस्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद् योगेन योगिनः ॥४७॥ १ परमानन्दम् ।