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अध्यात्म-रहस्य ... यह अनुभव करता है कि आठ पत्रोंवाला अधोमुख द्रव्यमनरूप कमल योगात्मक (ध्यानरूप) सूर्यके तेजसे खिल मया है और उसमें जिस परंज्योतिरूप प्रकाशका दर्शन हो रहा है वह मैं हूं। ध्वस्ते मोहतमस्यन्त शास्तेऽन-मनोऽनिले। शून्योप्यन्यैः स्वतोशून्यो मया दृश्येयमप्यहम४६ ___ 'मोहान्धकारके नष्ट होने और इन्द्रिय तथा मनरूप वायुका संचार रुकने पर यह अन्योंसे शन्य तथा स्वतः प्रशन्य मैं ही अन्तष्टिसे मेरे द्वारा दिखाई दे रहा हूँ।
व्याख्या-जब मोहान्धकार नष्ट होता है और इन्द्रियों तथा मनका व्यापार रुकता है तब कुछ क्षणोंके लिये
अन्तदृष्टिसे आत्माके द्वारा ही आत्माका वह शुद्ध स्वरूप दिखाई पड़ता है जो अन्य परपदार्थोसे शन्य होते हुए मी अपने सम्यग्दर्शनादि गुणांसे शुन्य नहीं,किन्तु परिपूर्ण है। इसी दृश्यको यहाँ ध्यानमग्न आत्मा देख रहा है । इस विषयमें तत्वानुशासनके निम्न पद्य ध्यानमें लेने योग्य हैं:
तदा च परमैकाप्रथाबहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्नकिंचनामाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥१७२।। अतएवाऽन्यशून्योऽपि नात्मा शून्यः स्वरूपतः। शून्याऽशून्य-स्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ॥१७॥ इनमें बतलाया है कि 'जब स्वरूपमें लीन हुआ योगी