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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला व्याप्त होता है तब-इन्द्रियोकी ऐसी अनिर्वचनीय दशा हो जाती है कि उन्हें न तो मृत कहा जाता है न जोवित, न सुस कहने में आता है और न जाग्रत । मृत इसलिये नहीं कहा जाता कि उनमें स्व-विषय-ग्रहणकी योग्यता पाई जाती है और वे कालान्तरमें अपने विषयको ग्रहण करती हुई देखी जाती है; जब कि मृतावस्थामें ऐसा कुछ नहीं बनता. जीवित इसलिये नहीं कहा जाता कि विषय-ग्रहणकी योग्यता होते हुए भी उनमें उस समय विषय-ग्रहणकी प्रवृत्ति नहीं होती । अथवा यों कहिये कि जीविनी शक्तिका कोई व्यवहार या व्यापार देखनेमें नहीं आता । सुस इसलिये नहीं कहा जाता कि विषयके अग्रहणमें उनके निद्राकी परवशता-जैसा कोई कारण नहीं है। और जानव इसलिये नहीं कहा जाता कि निद्राका अस्तित्व अथवा उदय न होनेसे उपयोगकी स्वतंत्रताके होते हुए भी वह उनके उन्मुख नहीं होता तत्वज्ञान और वैराग्यके ही सम्मुख बना रहता है-उपयोगकी अनुपस्थितिमें इन्द्रियाँ सुप्त न । होते हुए भी जागृतावस्था-जैसा कोई काम नहीं कर पातीं। विशद-ज्ञान-सन्ताने संस्कारो द्वोध-रोधिनि । जाग्रत्यजाग्रस्मृत्यादेः किं स्मरेत्कल्पनापि मे ५३ १ संकल्प-विकल्प । २ सति । ३ यद्यजाग्रत् । ४ द्वितीयार्थे षष्ठी। ५ वाह्यवस्तु प्रति किं स्मरेत् ? अपि न ! : कल्पना परिणतिक ीं