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अध्यात्म- रहस्य
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वश्यक है और यह विशेषण उसकी निकट भव्यताका भी द्योतक है ।
निजपद - प्रदानकी बात में दो बातें शामिल हैं -- निनपद क्या ? और उसका दान क्या अथवा वह कैसे दिया जाता है ? निजपद शुद्ध-स्वाधीन आत्मीय ज्ञानानन्दमयपदको कहते हैं, जिसका दूसरा नाम मुक्तिपद है और वह अवस्था मेदसे दो भागों में विभक्त है— एक जीवन्मुक्तिपद, दूसरा विदेहमुक्तिपद । शरीरके रहते जिस पदका उपभोग किया जाता है उसे पहला और शरीरके भी सर्वथा सदाके लिये छूट जाने पर जिसका उपभोग बनता है उसे दूसरा मुक्तिपद ( सिद्धपद ) कहते हैं ।
लोकमें जिस प्रकार एक मनुष्य अपना पद (ओहदा - दर्जा) दूसरे को देकर स्वयं उस पदसे रहित अथवा रिक्त हो जाता है उस प्रकार यह स्वकीय मुक्तिपद न तो स्वेच्छासे किसीको दिया जाता है और न अनिच्छापूर्वक दिया जाने पर मुक्तिपद प्राप्त आत्मा इस पदसे रहित या रिक्त ही होता है; क्योंकि मुक्तिपद मुक्तात्माका निजरूप अथवा निजी वस्तु है, जिसका दान नहीं बनता । कोई भी द्रव्य अपने स्वरूप या निजी वस्तु गुणका किसी दूसरे द्रव्यको दान नहीं कर सकता — गुणी मे गुण कभी 'पृथक् नहीं होता और न किया ही जा सकता है। वस्तुतः दान सदा परवस्तुका होता है, जिसे