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• अध्यात्म-रहस्य - अब देखना यह है कि ध्यान किसको कहते हैं? तत्वार्थसूत्रादि ग्रंथों में 'एकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यान जैसे वाक्योंके द्वारा एकाग्रमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहा है ।। इस लक्षणात्मक वाक्यमें एक, अग्र, चिन्ता और निरोध ये चार शब्द हैं। इनमें एक प्रधानका, अन पालम्बनका, चिन्ता-स्मृतिका और निरोध शब्द नियंत्रणका वाचक है, और इससे लक्षणका फलितार्थ यह हुआ कि 'किसी एक प्रधान आलम्बनमें चाहे वह द्रव्यरूप हो या पर्यायरूपस्मृतिका नियंत्रित करना--नाना आलम्बनोंसे हटाकर उसी में उसे रोक रखकर अन्यत्र न जाने देना--'ध्यान' कहलाता है । अथवा 'अंगति जानातीत्यग्र आत्मा' इस नियुक्तिसे 'अन' नाम आत्माका है, सारे तच्चोंमें अग्रगण्य होनेसे भी आत्माको अग्र कहा जाता है । व्याथिकनयसे 'एक' नाम केवल, असहाय या तयोदित (खालिस-शुद्ध) का है; 'चिन्ता' अन्तःकरणकी वृत्तिको और 'निरोध' नियंत्रण -तथा अभावको भी कहते हैं। इस दृष्टिसे एक मात्र शुद्धा.
मामें चित्तवृत्तिके नियंत्रण एवं चिन्तान्तरके अभावको ध्यान कहते हैं, जो कि केवल स्व-संवित्तिमय होता है। - ध्यानमें एकाग्रताको सबसे अधिक महत्व प्राप्त है, वह व्यग्रतामय अज्ञानकी निवृत्तिरूप है और उससे शक्ति * तत्त्वानुशासन ५६-६५।