________________
सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला एकाग्रताको नहीं छोड़ता है तब उस परम-एकाग्रताकें कारण आत्मामें स्वात्माको ही देखते हुए, वाह्य पदार्थोके होते हुए भी अन्य कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता (यह अवस्था मोहान्धकारके नष्ट होने तथा इन्द्रिय और मनोव्यापारके रुकने पर होती है)। अतएव अन्यसे शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूपसे शून्य नहीं होता, और यह शून्याश्शून्य स्वभाव आत्माके द्वारा ही उपलब्ध होता है।'
आत्मानुभूतिका उपाय * मामेवाऽहं तथा पश्यन्नैकाप्रय परमश्नुवे । । भजे मत्कन्दमानन्द निर्जरा-संवरावहम् ॥४७॥ . 'उपर्युक प्रकारसे अपने आपको ही देखता हुआ मैं परम-एकाग्रताको प्राप्त होता हूँ और निर्जरा संवर दोनोंको प्राप्त होनेवाले आत्मोत्थ-आनन्दको भोगता हूँ और इस दृष्टिसे संवर तथा निर्जरारूप मैं ही हूँ।' ।
व्याख्या-पूर्वोक्त प्रकारसे अपनेमें ही अपना दर्शन करता हुआ आत्मा परम-एकाग्रताको प्राप्त होता है और आत्माधीन आनन्दको भोगता है, जिसके फल-स्वरूप वह निर्जरा तथा संवर दोनोंका भागी होता है, अर्थात् उसके
* तमेवाऽनुभवंश्चायमेकामय, परमृच्छति। . । तथात्माधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम् ।।१७० (तत्त्वानु०)
१ मत्सम्भवं आत्मोत्यमिति यावत्। '