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अध्यात्म-रहस्य
सृजनकी कला और चातुरी भी स्पष्ट सामने आ जाती है, जिसमें उनके ग्रन्थनिर्माणकी सारी विशेषता संनिहित है । निःसन्देह पं० श्रशाधरजीने अपने बुद्धिवलसे श्रगाध जैनागम समुद्रका बहुत कुछ मन्थन करके सूक्तियोंके रूपमें धर्मामृत निकाला है और इसीसे वह अपने उक्त ग्रन्थको इतना सुन्दर एवं प्रामाणिक बना सके हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक सूक्तिसंग्रह है, जिसमें अध्यात्मविपयके अनेक ग्रन्थोंका मन्थन करके अपनी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार उपयुक्त सूक्तियोंका संग्रह किया गया है; जैसा कि ग्रन्थकी व्याख्या तथा पाद-टिप्पणियों (फुटनोट्स) में उद्धृत वाक्योंकी तुलनासे जाना जाता है। साथ ही, उससे यह भी मालुम होता है कि ग्रन्थकारके सामने यद्यपि अध्यात्म विपयके कितने ही ग्रन्थ रहे हैं परन्तु उनमें समाधितन्त्र, तवानुशासन और इष्टोपदेशादि जैसे कुछ ग्रन्थ अधिक प्रिय तथा अपने त्रिपयके लिये उपयुक्त जान पड़े हैं, और इसी लिये उनकी सूक्तियोंका ग्रन्थ में अधिक संग्रह किया गया है। संग्रह तथा सारग्रहणकी पद्धतिका भी उनसे कितना ही बोध हो जाता है । ग्रन्थको शीघ्र प्रकाशनकी प्रेरणादिके वश जहाँ व्याख्याको कहीं कहीं विशेष रूप नहीं दिया जा सका वहाँ व्याख्यादिमें और अधिक पद्योंको तुलना करके रखनेका अवसर भी