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अध्यात्म-रहस्य .
को भात्मा और देहको देह समझता है चाहे वह अपना हो या परका, और ऐसा करके वह उस निर्दोष समतासुधाका आस्वाद लेरहा है जो अन्य प्रकारसे नहीं बनता। शरीर-जैसे अस्थिर और क्षण-क्षणमें विकारग्रस्त होनेवाले पदार्थमें आत्माकी धारणा करनेसे समता-सुखकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती। वहॉ तो सदा दुःखदायिनी विषमताएँ धेरे रहती हैं-निराकुलताका कहीं नाम भी नहीं। अतः देहमें आत्मबुद्धि ही दुःखका मूल है । इसीसे स्त्री-पुत्र:मित्रादिकी कल्पनाएँ उत्पन होकर दुःखपरम्परा बढ़ती है ।।
___ तत्त्वज्ञानादिसे व्याप्त चित्तकी इन्द्रिय-दशा तत्त्वविज्ञान-वैराग्य-रुद्ध-चित्तस्य खानि मे। न मृतानि न जीवन्ति न सुप्तानि-न जाप्रति ५२ • . 'तच अथवा तचोंके विज्ञान और वैराग्यसे अवरुद्ध चिच हुआ जो मैं (आत्मा) उपकी इन्द्रियाँ न मरी है, न नीती हैं, न सोती हैं और न जागती हैं। -
व्याख्या-यहाँ इस रहस्यकी ओर संकेत है. कि सारा चित्त नब वस्तुतचके विज्ञानसे पूर्ण और वैराग्यसे * मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीः (समाधितत्र) + देहे स्वात्मधिया जाताः पुत्र-भार्यादि-कल्पना.। . सम्पत्तिमात्मनस्ताभिमन्यते हा हवं जगत् ॥ (समाधितंत्र-१४)