Book Title: Adhyatma Rahasya
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ अध्यात्म-रहस्य प्रकार एक बची तैलादिमे सुसज्जित होकर जब दीपककी उपासना करती है और गाढ-सम्बन्ध-द्वारा अपनेको उसके साथ मिला देती है तो वह भी स्वयं दीपक बनकर प्रज्ज्वलित हो उठती है * और दीपक या दीप-शिखा कही जाती है। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि दीपक जिस प्रकार अपनी उपासना-आराधना करनेवाली भव्य-बत्तीको अनिच्छापूर्वक अपना पद प्रदान करता है और वैसा करके स्वयं उस पदसे रहित नहीं होता-खुद भी दीपक बना रहता है-उसी प्रकार भगवान् महावीर तथा गौतम स्वामी भी अपना भजन-आराधन करनेवाले भव्य-जीवोंको इच्छाके न रहते भी अपना पद प्रदान करते हैं और वैसा करके स्वयं उस पदसे रहित नहीं होते-खुद भी मुक्तिपद-पर आसीन सिद्ध बने रहते हैं। और इसलिये मनमान भव्योंको अपने-जैसा पद प्राप्त करनेमें सबल निमित्तकारण होनेसे वे उन्हें निजपदको प्रदान करनेवाले कहे जाते हैं। यह अलंकारकी भाषामें कथन है।। यहाँ एक ही पद्यमें वीर-भगवानके साथ गौतमस्वामी* इसी वातको श्रीपूज्यपादाचार्यने अपने समाधितंत्रमें निम्न वाक्यके द्वारा व्यक्त किया है : मिन्नात्मानमुपास्याऽऽत्मा परो भवति ताश' । वर्तिदीपं यथोपास्य मिन्ना भवति ताशी ॥६७||

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137