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अध्यात्म- रहस्य
वाचक नहीं, बल्कि भव्यात्माकी अवस्था विशेषके संद्योतक हैं । बहिरात्मता उस अवस्थाका नाम है जिसमें यह आत्मा अपनेको नहीं पहिचानता, देह तथा इन्द्रियोंके द्वारा स्फुरित होता हुआ उन्हींको अपना आत्मा समझता है और इसलिये मूढ तथा अज्ञानी कहलाता है और अपनी इस भूल के वश नाना प्रकारके दुःख-कष्ट भोगता है । अन्तरात्मता उस अवस्थाविशेषका नाम है जिसे प्राप्त होकर यह जीवास्मा अपनेको पहिचानता है, देहादिकको अपने स्वरूपसे मित्र जानता है, उनमें आसक्त नहीं होता और इसलिये ज्ञानी तथा आत्मविद् कहा जाता है; परन्तु पूर्णज्ञानी तथा : पूर्णसुखी नहीं हो पाता । परमात्मा आत्माकी उस विशिष्टतम अवस्थाका नाम है, जिसे पाकर यह जीव अपने पूर्ण विकासको प्राप्त होता हुआ पूर्णज्ञानी और पूर्णसुखी बन जाता है । इस तरह अवस्था या पर्यायकी दृष्टिसे आत्माकी त्रिविधता है - स्वरूपसे या द्रव्यको दृष्टिसे वह तीन प्रकारका नहीं, किन्तु एक ही प्रकारका है।
श्रात्माके इन तीन अवस्था - मेदोको प्रकृत ग्रन्थमें स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म, इन तीन नामोंसे उल्लेखित किया गया है, जिनमें 'परब्रह्म' परमात्माका, 'शुद्धस्वात्मा' अन्तरात्माका और 'स्वात्मा' शुद्धस्वात्मासे पूर्ववर्ती होनेके कारण अशुद्धस्वात्मा श्रथवा बहिरात्माका