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अन्य धर्मों के प्रति ]
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गृहस्थी का त्याग ममत्व - विसर्जन के लिए आवश्यक है और देष-परिवर्तन का तात्पर्य है - पहचान या जागरूकता । • अन्य धर्मों के प्रति
धर्म सत्य है और जो सत्य है वह एक है । वह देश-काल और व्यक्ति के भेद से विभक्त नही है । जो देश-काल और व्यक्ति से "विभक्त है, वह धर्म का उपकरण हो सकता है, धर्म नही ।
आत्मा और धर्म भिन्न नही है । जो आत्मा है वही धर्म है और जो धर्म है वही आत्मा है । धर्म आत्मा से भिन्न हो तो वह आत्मा को अनात्मा से मुक्त नही कर सकता । जो आत्मा को आत्मा से भिन्न करता है, वह धर्म है । वह सबके लिए समान है । फिर भी लोग कहते है यह मेरा धर्म और यह तुम्हारा धर्म । यहाँ धर्म का अर्थ सघ या सम्प्रदाय है, आत्मा की विशुद्धि करने वाले गुण नही । भगवान् ने कहा— आत्मा की उपलब्धि न गाव मे होती है और न अरण्य मे। आत्मा अपना द्रष्टा बने तो वह गाँव मे भी हो सकती है और अरण्य मे भी । मुक्ति धर्म से होती है । वह जैन, बौद्ध आदि विशेषणो, अमुक-अमुक वेषो, आदि से नही होती । इस सत्य को 'भगवान् ने ‘अन्यलिंगसिद्धा' शब्द के द्वारा व्यक्त किया । मुक्त होने के लिए आवश्यक नही कि वह जैन साधु के वेष मे ही हो। वह किसी भी वेष या अवेष मे मुक्त हो सकता है, यदि साधु हो— मूर्छा या आसक्ति से मुक्त हो । सच्चाई यह है कि धर्म का प्रवाह किसी तट मे बंधकर नही बहता । वह उन्मुक्त होकर बहता है - सबके लिए समान रूप से बहता है । इसलिए वह व्यापक है । उसका