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स्वावलम्बन]
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सघ में रहकर भी अकेला रहने की स्थिति को भगवान ने बहुत प्रवल बनाया। यह साधना का बहुत ही प्रखर रूप है। इस स्थिति में अहिंसा को तेजस्विता प्रगट होती है।
स्थिति का जितना अधिक स्वीकार होता है उतनी ही सहायता अपेक्षित होती है। जैसे-जैसे स्थिति का दबाव कम होता चला जाता
है, वैसे-वैसे व्यक्ति सहायता-निरपेक्ष होता चला जाता है। एक __ दिन व्यक्ति अपने को सहायता से मुक्त कर लेता है। एक
व्यक्ति सहायता न मिलने पर असहाय होता है, यह परतत्रता की स्थिति है। एक व्यक्ति अपने को सहायता से मुक्त कर असहाय होता है, यह पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थिति है। इसे भगवान् ने बहुत महत्व दिया। शिष्य ने पूछा-भगवन् ! सहायता का त्याग करने से क्या होता है ? उत्तर मिला-अकेलापन प्राप्त होता है। जिसे अकेलापन प्राप्त हो जाता है वह कलह, कषाय, तूतू, मैं-मैं से मुक्त हो जाता है। उसे संयम, सवर और समाधि प्राप्त होती है।
भगवान् महावीर का स्वावलम्बन निमित्तो की दृष्टि से उपकरण, आहार और देह त्याग तक तथा आन्तरिक स्थिति को दृष्टि से प्रवृत्तिऔर कषाय-त्याग तक पहुँचता है। भगवान् आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता के जगत् से बोलते थे इसलिए उन्होने यही कहा-जो व्यक्ति उपकरण आदि बाहरी और कषाय आदि भीतरी बधनो से मुक्त होता है, वही पूर्ण अर्थ मे स्वावलम्बी होता है।