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(३५) आदि प्रमाणथी जेम अविरुद्ध स्वरूपवान् अनुभवाय छे, तेम इष्ट एटले आगमना पूर्वापरना वाक्योथी पण अविरुद्ध स्वरूपवान् ज सिद्ध करेल छे, परंतु आगमना एक देशमा आत्मा माटे अन्यथा प्ररुप्यु होय, अने अन्य स्थलमां तेथी विरुद्ध का होय तेम न होय. हा जैनदर्शनमां निश्चय अने व्यवहार, बाह्य अने आभ्यंतर. द्रव्य अने भाव, पर्याय अने गुण विगेरे स्वरूप प्ररुपण करती वखते भिन्न भिन्न स्वरूप दर्शाव्युं छे खलं, परंतु ए सर्व स्वरूप कथनमूल प्रात्मस्वरूपनो बाधकर्ता न होवाथी किन्तु पुष्टिकारक ज होवाथी तेनुं नाम विरुद्धकथन न कहेवाय, उलटुं ए तो सत्य तत्वकथन, सर्वज्ञकथित तत्त्व. पणानी ज सिद्धि करे के. अहीं आगम-परीक्षामां विद्वानोए एटलुं ज तपासवानुं छे के-एक ज वस्तुतत्त्वचें कथन एक स्थलमां भिन्न होय. अने अन्यत्र तेज वस्तु भिन्नरूपे कही होय आनुं नाम विद्वानो विरुद्ध वाक्यता कहे छे. दृष्टांत तरीके एक स्थानमां " अस्ति आत्मा" एवं कडं, अने फरी अन्यत्र " नास्ति आत्मा" एम कडं होय आमां सत्य शुं समजवू? अथवा जेम वेदमां कर्तुं छे के-" मा हिंस्यात् सर्वभूतानि " " सर्व जीवोनी हिंसा न करवी" आम कह्या पछी फरी ते लोको कहे छे के-" षट् शतानि नियुंजेत, पशुनां मध्यमेहनि" मध्यमेह नामना यज्ञमा छ सो पशुअोनो होम करवो" जे हिंसा पापकारी-बंधकारी मानी तेनो सर्वाशे निषेध कर्यो, ते ज हिंसाने पुनः धर्म्य मानी, स्वर्गदात्री मानी विधेय मानवी ए शुं विरुद्ध न कहेवाय ?