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( २८२) जात्यंतर पेटाजातियो आदि अनेक भेदो-उपभेदो थइ गया; पण या सर्व जातिओना पोतपोताना कूलानुरूप जे उचित व्यवहारो शास्त्रोमां दर्शावेल छे ते प्रमाणे व्यवहार करवो, श्राजीविका चलाववी, व्यापार करवो, कुटुंबरक्षण करवू ते ते लोको माटे न्याय गणाय अने ए प्रमाणे जे धन प्राप्त थाय ते न्यायसंपन्न धन कही शकाय. जेमके-वैश्योए व्यापार, व्याज, धीरधार आदि, क्षत्रियोए प्रजासंरक्षण, अनिति प्रचारनो नाश, शत्रुना भयथी बचाव, दुष्टोनुं दमन आदि, ब्राह्मणोए पठन-पाठन, उपदेश, धर्मवृद्धि, धर्मसंरक्षण, देवपूजा, मंत्रस्मरण, ध्यान आदि, अने शूद्रोए सेवा, कृषि आदि कार्योद्वारा धन प्राप्त करी तेनाथी आजीविका अने कुटुंबसंरक्षण करवू पण उपरोक्त चारे वर्णो तथा पेटाजातियो ए प्रमाणे वर्तन करता छलप्रपंच, चोरी, विश्वासघात आदि निंदक कार्यों न सेवे अने पोताना जातीय नियम प्रमाणे वर्तन करे तो ज ते न्यायी वर्तन कही शकाय.
आम छतां पण आचार्य कहे छे के न्यायथी धन उपार्जी ते धननो अमुक भाग व्यवहारसंरक्षणमां, अमुक भाग व्यापारमां, अमुक भाग कुटुंबपालनमां, अमुक भाग नोकर-चाकरसेवकोने संतुष्ट राखवामां अने अमुक भाग धर्ममार्गमा खर्च करे तेम ज अमुक भाग निधानस्थ करे, आ प्रमाणे वर्तनार भविष्यमां स्वजींदगीने भयमां नाखतो नथी, किंतु प्राय करता व्यय अधिक करे, वैश्रमण जेवी स्थिति राखे, कुटुंब