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श्रीं जिनबिंबमां जे मंत्रनो आरोप करीए ते मंत्रथी " आ जिनबिंब अमुक तीर्थकरनुं अने तीर्थकरना चमत्कारिक गुणोनुं जरुर भान करावनार, तेमज पापबुद्धिथी, संसारभयोथी अवश्य बचावनार " आदि गुणोनो अवश्य एकान्त लाभ थवो जोइए, अन्यथा ते मंत्र मुख्य फलविधायी न गणाय. आ हेतुथी शास्त्रकर्ता जगावे छे के - श्रहीं मंत्रन्यास ते 'ॐ' तथा ' नमः 'पूर्वक अमुक नामस्थापनरूप प्रथम करवो, जेमके “ ॐ नमः ऋषभाय " या प्रमाणे नामस्थापन करवुं. आ प्रमाणे स्थापन कर्या पछी पूजक भवि आत्माने अमुक तीर्थंकरनी या मूर्ति के, श्रमूर्त्ति विधिसह अंजनशलाकाकृत छे, शास्त्रीय विधिमय बे-आवा ख्यालो उपजावी तीर्थंकरपणाना अनेक उदात्त गुणोनो भास करावी दर्शन-पूजन आदि कार्योंमां उल्लासकारक अपवित्र भाववर्द्धक अवश्यमेव थाय छे. अतएव उपरोक्त मंत्र सान्वयी सगुणी होवाथी स्वजन्य फलप्रापक बने छे, माटे ए ज मंत्र अहीं परममंत्र शास्त्रकर्ताए मान्यो भने तेनी ज स्थापना करवानो आदेश आप्यो, अर्थात् मा सिवायना अन्य मंत्रो उक्त मंत्रना पुष्टिकारक मंत्रो अने गौण मंत्री जाणवा.
यहीं पर्यंत शास्त्रकर्त्ता ' जिनबिंब ' भराववानी विधि तथा शुद्धि कही, अने 'जिनबिंब' भराववानो उपदेश प्राप्यो तेमज तेनी अंजनशलाका करवानुं जणान्युं. हवे कोइ शक्ति