Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 368
________________ ( ३५७ ) श्रीं जिनबिंबमां जे मंत्रनो आरोप करीए ते मंत्रथी " आ जिनबिंब अमुक तीर्थकरनुं अने तीर्थकरना चमत्कारिक गुणोनुं जरुर भान करावनार, तेमज पापबुद्धिथी, संसारभयोथी अवश्य बचावनार " आदि गुणोनो अवश्य एकान्त लाभ थवो जोइए, अन्यथा ते मंत्र मुख्य फलविधायी न गणाय. आ हेतुथी शास्त्रकर्ता जगावे छे के - श्रहीं मंत्रन्यास ते 'ॐ' तथा ' नमः 'पूर्वक अमुक नामस्थापनरूप प्रथम करवो, जेमके “ ॐ नमः ऋषभाय " या प्रमाणे नामस्थापन करवुं. आ प्रमाणे स्थापन कर्या पछी पूजक भवि आत्माने अमुक तीर्थंकरनी या मूर्ति के, श्रमूर्त्ति विधिसह अंजनशलाकाकृत छे, शास्त्रीय विधिमय बे-आवा ख्यालो उपजावी तीर्थंकरपणाना अनेक उदात्त गुणोनो भास करावी दर्शन-पूजन आदि कार्योंमां उल्लासकारक अपवित्र भाववर्द्धक अवश्यमेव थाय छे. अतएव उपरोक्त मंत्र सान्वयी सगुणी होवाथी स्वजन्य फलप्रापक बने छे, माटे ए ज मंत्र अहीं परममंत्र शास्त्रकर्ताए मान्यो भने तेनी ज स्थापना करवानो आदेश आप्यो, अर्थात् मा सिवायना अन्य मंत्रो उक्त मंत्रना पुष्टिकारक मंत्रो अने गौण मंत्री जाणवा. यहीं पर्यंत शास्त्रकर्त्ता ' जिनबिंब ' भराववानी विधि तथा शुद्धि कही, अने 'जिनबिंब' भराववानो उपदेश प्राप्यो तेमज तेनी अंजनशलाका करवानुं जणान्युं. हवे कोइ शक्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430