________________
(३५६ ) आचार्यमहर्षिद्वारा शास्त्रदर्शित विधिथी अंजनशलाका ज्यां सुधी न करवामां आवे त्यां सुधी भा मनोहर पण जिनबिंब पूजा, दर्शन अने अाराधनीयपणे स्वीकार्य नथी एम शास्त्रो कहे छे. निदान ए के-अंजनशलाका विनाना जिनबिंब जो के जिनेश्वर देवनो आकार छे तो पण तेमां देवत्वनो आरोप, मंत्रनी स्थापना भने चोवीश जिनेश्वराना नाम पैकी अमुक नामनी स्थापनाशून्य होवाथी पूजा, दर्शन तथा आराधना करनार उत्तम माविकना हृदयमां देवपणानी श्रद्धा, हृदयोल्लास, जिनगुण अवमास, शास्त्रविशुद्धता, चमत्कारीत्व अने पूजा योग्य भावो आ जिनबिंब उपजावी शकतुं नथी, एटले तत् बिंबजन्य लाभो अप्राप्य होवाथी अर्थशून्य ज गणाय. अतएव ा प्रमाणे जिनबिंब निपजावी तमां मंत्रस्थापन अने अंजनशलाकानी पवित्र विधि कर्तव्यतया अभीष्ट मानी छे, ए ज वातनी पुष्टि
आचार्यश्री मा श्लोकमां करे छे. कर्तव्यपणे अभीष्ट अने शुद्ध निष्पन्न जिनबिंबमां शीघ्र मंत्रनो न्यास-आरोप करवो. अहीं मंत्रो अनेक प्रकारना छे, एटले क्या मंत्रनो आरोप इष्ट गणाय ? आनुं समाधान ग्रंथकर्ता स्वयं करे छे. 'मंत्र' शब्द 'मन' धातु परथी बन्यो छे. 'मनि ' ज्ञाने. 'मन' धातुनो ज्ञान अर्थ, तथा 'मन' धातु त्राण-रचण ए अर्थमा के. एटले 'मननात् त्राणात् च मंत्रः । जेनाथी ज्ञाननो लाभ तथा रक्षण थाय ते मंत्र. परमार्थ एके