Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

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Page 399
________________ ( ३८८) कही, पण अन्य प्रतिष्ठानो निषेध कर्यो तेनुं शुं कारण ! आ शंकानुं निरसन ग्रंथकर्ता आ प्रमाणे जणावे छे. बीजमिदं परमं यत्परमाया एव समरसापत्तेः ॥ स्थाप्येन तदपि मुख्या, हन्तेषैवेति विज्ञेया ॥ ८-५ ॥ मूलार्थ-मुख्य देवना उद्देशथी स्वात्मामां निजभावनी प्रतिष्ठा करवी ते ज प्रतिष्ठा परम-उत्कृष्ट समरसमुख्य देवतुल्य भावप्राप्तिनुं परम कारण एटले बीजभूत मानेल छे, अतएव बहिर्वर्ती मूर्तिद्वाराए पण ते ज आत्मिक भावनुं पोषण थाय छे अने तेमां उपचारथी निजभावनो ज आरोप करीए छीए माटे परमार्थथी ए ज प्रतिष्ठा मुख्य जाणवी. " स्पष्टीकरण" स्वात्मा अने परमात्मा आत्मत्वभावरूपेण अने गुणरूपेण समान ज छे, केवल परमात्मा ए शुद्ध-निदोष कांचन तुल्य शुद्ध स्वरूप छे ज्यारे आत्मा मलीन-माटीमिश्रित कांचन तुल्य अशुद्ध स्वरूप छे. हवे स्वात्मा परमात्मपणुं प्राप्त करवाने परमात्मभावनो विचार, तेनुं ध्यान, पूजन, स्मरण करे तो ज परमात्मा थाय. आ ध्यान, विचार तथा पूजन आदि परमात्माकारनुं अवतरण विना न ज बने,

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