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मनद्वारा ज करे छे. शुभाशुभ कार्योंमां मन मुख्य मान्युं छे, माटे मन कदाचित् शुभने शुभतया अने शुभने अशुभतया परिणामावी शके ए सहज छे. आथी मनने जे संस्कार मले तेवी रीते ते परिणमे छे ने प्रवृत्ति - निवृतिमां साधक बने छे. अतः श्रात्मानी ऐच्छिक इष्टसिद्धि माटे प्रथम मनने ज सुशिक्षित ने पवित्र संकल्पी बनाववुं उचित छे. जेम थया पछी मन तप, संयम, स्वाध्याय, शील आदिने आदेय मानी तेमां प्रवृति, अने हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदिने हेय मानी तेनी निवृत्ति करे छे. परंतु या प्रकारनी विवेकशाली प्रवृत्तिनिवृत्ति करवानुं बल मनने सुसंस्कारो अथवा ज्ञानप्राप्ति थया विना प्राप्त थवुं दुःसाध्य छे - बराबर मन समजदार थया पछी ज करे छे. “ सर्वज्ञवचन "
थी ग्रंथकर्ता जगावे छे के - 'यस्मात् ० ' या भूमंडलमां शुभ कार्योंमां मनने प्रवर्त्तावनार ने शुभकार्योंथी निवृत्ति करावनार केवल सर्वज्ञकथित सिद्धान्त-प्रवचन सिवाय अन्य कोई पण साधन नथी; कारण के सर्वज्ञ प्रवचनमां ज प्रवृत्ति - निवृत्ति मार्गो दर्शावी हेय, उपादेय पदार्थों अच्छी रीते दर्शाव्या छे. सिवाय एक पण एवं प्रवचन जगतमां नथी के जेमां विरोधी, स्वार्थनुं अने स्खलित कथन न होय. सर्वज्ञवचननो बोध थया पछी आत्मा हेयनो त्याग अने उपादेयनुं उपादान करे छे एटले मनने सर्वज्ञागमना अभ्यासथी संस्कारित बनावबुं जोइए. कारण के-सर्वज्ञागमनुं परिशीलन करवुं ते ज वास्तविक धर्म छे; हिंसादिथी निवर्तयुं अने तप, स्वाध्यायादिमां प्रवृत्ति करवी ते