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( ७३ ) क्रियायां च, साधुनामेकरूपता " ए ज नियमनुं समुचित रीते पालन करवू न्याय्य गणाय. " ग्रंथकर्त्तानो आशय"
अत्र ' उपदेशके बालजीवोने बाह्यवेश तथा बाह्याचारनी प्राधान्यतावाली धर्मदेशना आपवी' आयु जे प्राचार्यश्रीए जणाव्युं तेनुं कारण आ बाललोको आवा उपदेशथी अनुक्रमे धर्म पामे ए ज समजवू, परंतु वा उपदेशथी ते लोकोने अंधारामां अथवा वालस्थितिमा राखवा एवो आशय आचार्यश्रीनो छे एम न समजवु. किन्तु बालकने मिठाइनी लालच आपी जेम कडवा औषधनुं पान करावाय छे, ए न्याये अहीं पण आ लोकोने जे बस्तुमा अधिक प्रेम तथा श्रद्धा के ते वस्तुना गुणो दर्शावी तेमां तेत्रोने बराबर सुदृढ करी, तेमोनी विचारशक्ति अने विवेकशक्तिने खिलववी तेमन अनुक्रमे द्रव्यक्रिया अने भावक्रियानुं स्वरूप, आत्मानी विचित्र परिणतीयो, अध्यात्मतत्त्वचं दिग्दर्शन, आगमतत्त्व, व्यवहार अने निश्चयनयनी मान्यता विगेरे जणावी बाह्यवेश, बाह्यक्रियाश्रोनी मुख्य गौणता, क्रियानो खाली पण बाह्य आडंबर क्यां अने केवा केवा प्रकारनो होय छे ? पासत्याओ पण के वर्तन तथा क्रियानुं परिशीलन करे छे ? विगेरे दर्शावी, केवल बाह्यवेश आदिमां बालजीवोनो स्थापित एकान्त अनुराग उठावी तत्त्वमार्गमां भावप्राधान्य द्रव्यक्रियामोमां स्थापन