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(१४४) केवल संकल्पमात्रने उपाध्यायजी धर्मतया स्वीकारता नथी.मा व्याख्यामां 'यत्' शब्दनो 'धर्म' साथे संबंध करी उपाध्यायजी कहे छ के 'यतः धर्मात् जे माटे धर्मथी, विहित क्रियाद् आचरण अने निषिद्ध क्रियानो त्याग तद्रूप क्रियानी प्राप्ति थाय छे. फरी मूलस्थ अधिकरण शब्द अधिकारवाचक छे. एटले क्रियारूप जे अधिकार तेनानिमित्तथी-आश्रयथी भवि मात्माने संसारनी उदासीनता, विषयथी विमुखभावरूप कार्यों निष्पन्न थाय छे. मनथी धर्म, धमथी क्रिया, तथा क्रियाना
आधारथी भवनिर्वेदरूपकार्योनो जन्म थाय छ माटे अत्र 'चित्तप्रभवो धर्मः'ए रीते धर्मनुं लक्षण जाणवू. "विशेष कथन"
आ व्याख्यामां " यत्, अधिकरण, क्रिया, कार्य" मा शब्दोना संबंध माटे, तेना अर्थ माटे अन्यान्य कन्पनामो के अधिक विचारो करवानी मुश्केलीयो नडती नथी. वहीं मार्गानुसारीनी जे प्रवृति ते धर्म जाणवो. पा लक्षणवाळो धर्म मार्गानुसारीमा संभवे, परंतु अभव्य के दुर्भव्यमां आ धर्म न होय कारण के त्यां तो मनना धर्मीय संकल्पपूर्वक विहिताचरण अने निषिद्ध त्यागरूप क्रियानो संभव ज न होय. " लक्षणवृद्धि"
मा · धर्म ' पण रागादि मलविकारो रहित अने पुष्टि शुद्धिवाळो ज जाणवो. एटले रागादि विकारवान्