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( १४०) बाबतमां यशोभद्रसूरिजी दोष जाहेर करे छे ते बाबतने पोते पहेला स्वीकारे छ, माटे अहीं उभय टीकाकारोनो आशय समजवा वांचको पासे उभयथा नीकलतुं स्पष्टीकरण अमे पण अलग अलग धर्यु छे. एके टीकाकारना आशयनी लघुता करवा अमे साहस नथी करी शकता. परमार्थ तो विद्वानोए ज विचारवो.
ग्रंथकर्ता धर्मर्नु लक्षण दर्शावे छे. लवणनुं लक्षण गत आर्याना स्पष्टीकरणमां तपासी गया तथाप्रकारे अहीं पण घटना पाठकोए करी लेवी. "चित्तप्रभवो धर्मः" "चित्त-मननी उत्पत्ति तेज धर्म". चारित्र-वर्तनमात्र, क्रियारूप प्रवृतिमात्र मनपूर्वक ज थाय छे, एटले हृदयना संकल्पो ते ज अहीं धर्म जाणवो, कारण के श्लोकांतर्गत 'चित्तप्रभवो' ए वाक्यनो विशेषणसमास अत्र स्वीकारवो. " चित्तं स चासौ प्रभवश्व चित्तप्रभवः " " चिच-मन तेनो ज प्रभव-जन्म-आविर्भाव तेज चित्तप्रभव" एटले आनुं नाम धर्म अत्रस्य यत् शब्दथी चित्तनुं ग्रहण करवं. परमार्थ ए के-कोइपण विधेय या निषिद्ध क्रियामां आत्मानी गति थाय छे ते मननी प्रेरणा विना तो नहीं ज, एटले मननी इच्छाद्वाराए क्रियाकांड बने छे माटे चित्त ए क्रियोत्पादक होवाथी कारण जाणवू अने क्रिया ए निष्पद्यमान होवाथी तेने कार्य कयुं छे. हवे जे क्रियाओने जन्म आपनार मन छेते काइ निराधारपणे स्वतंत्र रही शकतुं नथी, तेमज क्रियाओ पण मनना