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(३३७) विंचनी योग्य मुहूर्तमां शास्त्रदर्शित विधिथी आडंबरपूर्वक उपरोक्त जिनमंदिरमां बुद्धिमान् नरे जरूर प्रतिष्ठा करवी. स्थापन करवू. अहीं ग्रंथकर्ता मूलमां 'बुद्धिमता' ए पदथी बुद्धिमाने एटले जे शास्त्रदर्शित प्रतिष्ठाविधिकुशल अने प्राचार तथा धर्ममां पूर्ण श्रद्धालु तथा कुशल होय तेवा ज मनुष्ये मा प्रतिष्ठा करवी अगर तेवा पुरुष पासे प्रतिष्ठा कराववी, ए आशय जणान्यो छे. तेमज मूलमां-' द्रुतं तु' ए पद छे एटले मन्दिर निष्पन्न थाय के तुरत ज प्रतिष्ठा करवी, किन्तु विलंब न करवो. हेतु ए के-शिल्पशास्त्रमा मंदिर तैयार थया पछी अमुक मुद्दतमा प्रतिष्ठा करवानुं भने तदुपरांत मुद्दत थवाथी दोषप्राप्ति कही छे; एटलुं ज नहीं परंतु मंदिर खाली रहेवाथी तेमां कोई दुष्ट देवनो वास थइ जाय के अने तेथी मंदिर करावनार अथवा संघने कइंक प्रकारना नुकशानो उभा थाय छे, माटे मंदिर पूर्ण थवा साथे अथवा मूल गभारो तैयार थवा साथे तुरत ज मूर्चिनी स्थापना-प्रतिष्ठा करी देवी ए शास्त्राज्ञा के.
ए प्रमाणे सशुद्ध जिनबिंब पधराववाथी ए जिनमंदिर पण सनायकत्व-साधिष्ठ थयु कहेवाय, अतएव आ ज मंदिर संघर्नु, प्रतिष्ठा करनारनु, तेना कुटुंबियोनुं कल्याण करनार थाय के. अरे । खास वृद्धिकारक बने छे.