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( २०६ ) अन्यथा ते बन्ने आशय विनानुं दाक्षिण्यपणुं भद्रिक आत्माने मारनारं कातिल शस्त्र जाणवू. पाटलुं छतां जो पोताथी अधिक गुणवंतनी प्रशंसा-कीर्ति आदिने सहन न करी शके तो, अथवा अन्य लोकोए करेल पोतानी प्रशंसा-गुणस्तुति सहन न करी शके अने मदमां चडी जाय तो उपरोक्त गुण छतां पण ते आत्माओ जगतने घणी वखत श्रापभूत थाय छ, आथी ज ग्रंयकर्ता फरी-' मात्सर्यविघातकृत्परमः' ए चरणथो उपर कथित गुणनी व्याख्यामां वधारो करे छे. 'मात्सर्यः' एटले अधिक गुणनी प्रशंसा अथवा स्वगुणनी प्रशंसा श्रवण करीने जे असहिष्णुपणुं अगर अभिमान उद्भवे ते. या दोषने मूलमांथी ज उखेडी नांखी अधिक गुणीपरनो प्रेम अथवा पक्षपातवाली जेनी दृष्टि छ, तेमज स्वगुणनो जेने मद न होय एवो उत्कृष्ट पवित्र सुदाक्षिण्यस्वभाव जेनो होय तेनुं नाम 'दाक्षिण्य ' नामे बीजो शुभाशय जाणवो.
उपरोक्त सुगुण यदि पापकार्यो प्रति घृणानी बुद्धि न प्रगटे तो दुर्गुणपणे परिणमे, अने जेने लोको छलप्रपंच के माखणीयावालो आ गुण माने के तेवा रूपमा ज पा गुणनी व्याख्या पर्यवसित थाय, तेम ज पापकार्यों प्रति तिरस्कारदृष्टि विनानो उपरोक्त गुण नकामो ज गण्यो छे; माटे क्रमप्राप्त "पापजुगुप्सा" नामे त्रीजा गुणनुं वर्णन ग्रंथकार करे छे. पापजुगुप्सा तु तथा
सम्यक्परिशुद्धचेतसा सततम् ।