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(१०२) अशुभ-अपवित्र विकल्पो उद्भवता नथी, बल्के सर्वदा सद्विचारो ज बन्या रहे छे. अतएव आ समितियो कर्मनिर्जरा अथवा शुभकर्मनो ज बंध करी भविष्यमां सुंदर फल अर्पण करे के माटे आ मुनि-आचाररूप अष्ट प्रवचनमाता अनुबंधरूपे पण शोभन कल्याणावह ज जाणवो. परमार्थ ए के-हेतु, स्वरूप अने अनुबंधरूपे त्रिधा हितकारी एवो मुनियोनो प्राचार जाणवो. " बीजी व्याख्या" ___अथवा टीकाकार " आद्यंत." आ पदनी टीका आ प्रमाणे करे छे—“ वयसो जीवितव्यस्य वा हितदमु. पकारि" उपरोक्त साधु आचार जीवननी प्रत्येक अवस्थामां हितकारी-उपकारी थाय तेवो छे. एटले प्रथम दर्शावेल मुनि प्राचाररूप अमृतपान बाल, युवान के वृद्ध कोइ पण वयमां देवामां आवे तथापि सर्व वयमां तुल्यरूपे उपकारी, अजरअमर फल प्रगाढरीत्या अर्पनार बने छे. पुनः प्रकारांतरे टीकाकार कहे छे के-" वयनी आदिमां सूत्रादिनो अभ्यास, मध्यवयमां अर्थश्रवण अने अंत्यावस्थामां धर्मध्यानादि द्वाराए त्रणे वयमां आ मुनि-प्राचार हितकारी थाय छे" अर्थात् चारित्र ने जीवननी त्रण अवस्था पैकी कोइ पण वयमा स्वीकाराय अने तेथी जे जे वयमां चारित्र स्वीकार्य होय ते ते वयमां तत् तत् वय योग्य कर्मद्वाराए स्वीकारनार आत्मा पोतार्नु अवश्य कल्याण करी शके छे. निदान के अमुकज