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अहीं आसक्तिपूर्वक पदार्थो एकत्र करवा उद्यम करवो ते परि. ग्रहसंज्ञा अने पदार्थों मेळववा श्रासक्ति धारवी ते लोभसंज्ञा. श्रा प्रमाणे परिग्रह अने लोभसंज्ञा उभयमां भेद होवाथी ते बन्ने संज्ञामो अलग अलग जणावी. एवं मति-श्रुतज्ञानना
आवरणक्षयोपशमथी शब्द अने अर्थज्ञान-विनानो सामान्य मात्र जे बोध प्रगटे अने ते बोधद्वारा आत्माना जे व्यापारो ते
ओघसंज्ञा. जेमके वेलडीयो लोको जे मार्ग पर चाले त्यां न वधता पोताने पीडा न थाय ते माटे वाड तरफ ज वधे. विकलेंद्रियो आतपमांथी नीकली छांयामां आवे ए ओघसंज्ञाजन्य क्रियाओ कही छे, तथा ओघसंज्ञामां जे ज्ञान प्रगटे तेना करतां विशिष्ट जे उपयोग ते लोकसंज्ञा. आ दशे प्रकारनी संज्ञाश्रो पंचेंद्रियोमा स्पष्टतर जणाय छे, ज्यारे एकेंद्रियोने कर्मोदयजन्य आत्मपरिणामरूपे ज होय पण प्रत्यक्ष न होय.
अहीं जणावेल आ दशे संज्ञाओ पूर्णतया होय त्यां सुधी अात्मा धर्मनी रुचिने पण पामी न शके, तो पछी 'तत्वबोध' आगमवचनपरिणति अने सम्यक्त्वभाव क्यांथी पामी शके ? माटे ज अहीं ग्रंथकारे प्रथम 'सदनुष्ठान' पामवा अर्थे ा दशे संज्ञामोनो यथाशक्तिए निरोध करवा, दर्शाव्यु, अर्थात् श्रा संज्ञानो यथाशक्तिए निरोध करवाथी तेमज निरोध करवानो उत्साह धारवाथी आ विरति-त्यागरूप सदनुष्ठान क्रिया प्राप्तिनी योग्यता आत्मा पामी शके के कारण के आत्माने सुंदर भावथी स्खलित करवामां मुख्य कारणभूत आ अनादिनी