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ज्ञानो लोप करता नथी, कोइ पण क्षणमां या मातानी सेवा विसरता नथी, प्रतिक्षणे "जयं चरे जयं चिठ्ठे ० " " जयगाथी चाल ने जयगाथी बेसवुं " ए महर्षिपूज्य श्रज्ञाने शिरोधार्य करी, ईर्यासमिति श्रादिमां सोपयुक्त रही अहोनिश वर्तन श्राचरे छे, तेओने भवसंसारनो भय रहेतो नथी अर्थात या मुनियोने चतुर्गतिना दुःखनो लवलेश जेटलो डर होतो नथी कारण के योनी शीघ्र मुक्ति ज थाय छे. ठीक ज छे के
यो अन्य प्राणीने स्वात्मवत् देखी एक रोममात्रमां पण पीडा न थाय अने आत्मा अशुभ पापकर्मनो बंधक न बने, आत्मा एक रोममां पण अशुभ विचार के प्रवृत्ति न करे तेवी अलौकिक उदार - पवित्रतम अप्रमत्तभावना धारे- आचरे के, योनी शीघ्र मुक्ति ज थाय. अतएव दशवैकालिकमां महर्षिपूज्य शय्यंभवसूरि महाराजे कह्युं ते उचित ज छे -" सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासो । पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधह " ॥ १ ॥ “ कोई पण जीवने दु:ख न उपजावतो ने सर्वने स्वात्मवत् देखनार तथा श्रवोने रोकनार ने इंद्रियोनो निग्रह करनार एवो मुनि फरीने पापकर्मने बांधतो नथी " वधुमां श्रहीं मूलकर्ता भार दइने कहे छे के -' नियमात् ' निश्वयथी भवनो भय रहेतो नथी, एटले नितान्त - शंसयेन भवनो नाश थाय छे.
“ उपसंहार फरी भविष्यमां श्रा मुनिनुं अत्यंत हित- उत्कृष्ट कल्याण ज थाय छे. परमार्थ ए के - सोपयुक्त मुनिने
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