Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

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Page 391
________________ ( ३८०) प्रतिष्ठा कही छे. परमार्थ ए के-उपरोक्त ध्यान विना आ प्रतिष्ठा अप्राप्य कही छे. " आत्मामां परमात्मपणुं केम थाय ?" अहीं पाठकोने शंका अवश्य थशे के मुख्य परमात्मा अनंतगुणविशिष्ट परम ज्योतिरूप छे, अने प्रतिष्ठाकर्ता एक संसारी पुरुष छे, ते यदि परमात्मगुणर्नु ध्यान करे तो एकाद गुणनुं ध्यान करी शके. ते पण मात्र विचारपणे, परंतु अनुभवरूपे तो नहीं ज. परमात्मगुणनो अनुभव तो त्यारेज थाय के जो परमात्मपणुं प्राप्त थाय. हवे परमात्माना एकाद गुणनुं ध्यान करवाथी पूर्ण परमात्मस्वरूप साथे प्रतिष्ठाकर्तानी तन्मयता अने कर्ताना आत्मामां परमात्मपणानी प्रतिष्ठा मानवी ए युक्तिथी अग्राह्य विषय छे, एटले स्वात्मामां परमात्मानी प्रतिष्ठा करवी ए नितान्त अघटित ज सिद्ध थाय छे. आ प्रश्ननुं समाधान उपाध्यायजीए स्वटीकामां आ प्रमाणे कयु छे. शास्त्रकर्ता स्व-आत्मामां परमात्मानी प्रतिष्ठा करवानो उपदेश “वचननीत्योच्चैः" ए पदथी करे छे, एटले के-वचनानुष्ठानवडे प्रतिष्ठा करवानुं दर्शावे छे. शास्त्रकारनी आज्ञा लक्ष्यमा राखी जे क्रिया थाय तेने शास्त्रकर्ताए वचनानुष्ठान कयुं छे. अहीं १ जो पुण जिणगुणचेईसुत्तविहाणेण वंदणं कुणइ। वयणाणुट्ठाणमिणं चरित्तिणो होइ नियमेण ॥१॥ चेइयवंदणभासं० गा० ॥११॥जे कोइ चैत्यवंदनसूत्रना विधानवडे जिनचैत्योनी वंदना करे तेनुं नाम वचनानुष्ठान कह्यु. आ अनुष्ठान संयमीने अवश्य होय.

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