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(१०३) वयमां चारित्र स्वीकारी शकाय एवं अमुक ज वयमां चारित्र पोतानुं फल अर्पण करे छे तेवो एकान्त नियम अहीं नथी. अतएव प्रथम १२ वर्षमां सूत्राभ्यास, पछी १२ वर्षमा अर्थाभ्यास अने पश्चात् १२ वर्षपर्यंत विहार करी शिष्यादि निष्पत्ति एटले आचार्यपद योग्य थाय आम जे विशेषावश्यकमां दर्शाव्युं छे, ते पण जेने प्रथम वयमां चारित्र स्वीकार्यु होय अने आयुष्य दीर्घ तथा बुद्धि तीक्ष्ण होय तेने माटे, अथवा वय गमे ते होय छतां क्षयोपशमादि तीव्र होय तेने माटे श्रा नियम सुसंबद्धरीत्या पाठकोए घटाववो-जाणवो. आथी उपरोक्त कथनमां पण काइ बाध नहीं आवे. " उपाध्यायजीन कथन"
उपाध्यायजी महाराज " आद्यंत." ए पदनी टीकामां साधु आचार माटे "आवीलए निप्पीलए इत्यागमात्तदविरोधि अल्पमध्यमविकृष्टतपोविशेषरूपैर्वा हितदं भवति" मलिन कपडं सामान्य मर्दन, विशेष मर्दन करवाथी सामान्य, विशेष रीते विशुद्ध बने छे, एवं कर्मावृत्त आत्मा पण अल्प, मध्यम अने उत्कृष्ट तपस्या करवाथी विशुद्ध विशुद्धतर थाय छे. परमार्थ ए छे के-संयम स्वीकार्या पछी जेम मुनि-आचारमा आठ प्रवचनमातानुं पालन करवानुं कह्यु तेम आत्मानी विशुद्धि माटे जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट तप पण शक्ति अनुसारे करवो उचित छे. एटले ए रीते तप अ. पेक्षाए पण मुनि-प्राचार आदि, मध्य अने अन्तमां सर्वथा