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आ शयनी प्राप्ति यो प्रतिपापकारी प्रारंभोमां सर्वदा प्रवर्तनशील होय अने पोतानो ज स्वार्थ मुख्य रीते साधवामां मनी प्रधान द्रष्टि होय तेओने तो न जथाय, कारण के प्रावी द्रष्टवाळामां बहोलताये अनुकंपाबुद्धिनो सर्वथा लोप ज ययो होय छे; अने ज्यां अनुकंपा न होय त्यां धर्म ए खाली नाममात्रज समजवो अने हीं अनुकंपा तो खास मुख्य मानी छे. अतः ग्रंथकर्ता उत्तरार्धथी अधिक खुलासा करे छे के - 'निरवद्यवस्तुविषयं परार्थनिष्पत्तिसारं च '' परोपकारसिद्धि प्रधान ने निर्दोष पदार्थ संबंधी जे विचार ' जे कार्यो करवाथी पोते अंगीकृत धर्ममर्यादानुं पोषण थाय एटले नित्य एवा ज पदार्थनुं ध्यान रहे के स्वीकृत धर्म संबंधी प्रतिज्ञानेो कदापि भंग न थाय तथा प्रत्येक कार्यो अने तत्संबंधी विचारो - द्वारा अन्यनो मुख्यतः उपकार ज थाय किन्तु पोतानो स्वार्थ मुख्य न सघाय एवी रीते पापनो परिहार करी प्रधान कार्यो करवाने हम्मेशा ध्यान करवुं विचारो करवा. भावा विचाराने
कमां धर्म संबंधी स्वीकृत प्रतिज्ञामां दृढता अने गुणहीन जनो पर अनुकंपाबुद्धिपूर्वक परोपकारप्रधान पापनिर्मुकत वस्तुश्रोतुं हमेशा चितवन - ध्यान - आने ज शास्त्रकर्ता ' प्रणिधान ' नामक आशय जगावे छे.
" ' प्रणिधान ' नामे पहेला आशयमां केवल मानसिक तथाप्रकारनी सुंदर बुध्धि दर्शावी. हवे भावी बुध्धिनो जन्म या पछी तेना फलरूप अने प्रथम आशय पछी जेथी सुंदर