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देयं तु न साधुभ्यस्तिष्ठति, यथा च ते तथा कार्यम् ॥
अक्षयनीव्या ह्येवं,
ज्ञेयमिदं वंशतरकांडम् ॥ ६-१५ ॥
मूलार्थ - आ रीते मंदिर बंधावी साधुयोने अर्पण न कर किन्तु साधु उपदेशादि माटे त्यां रहे तेवी व्यवस्था बहारना भागमां करवी, कारण के ए प्रमाणे करवाथी अनेक लोक त्यां वे एटले या जिनमंदिर पुण्यप्रवाह माटे अक्षयनीवि बने, तथा संसारसमुद्रथी संपूर्ण समाजना वंशनां उद्धार करनार प्रवहण समान थाय,
" स्पष्टीकरण "
या ते विधिशुद्ध मंदिर गृहस्थे बंधावी तेनुं रक्षण विगेरे पोते ज कर अथवा मंदिरनी योग्य व्यवस्था सारु अमुक रकम आवकनुं साधन निकाळी अमुक धर्मी गृहस्थोने तेनी सारसंभाल माटे सोंप एटले श्रीसंघने सुप्रत कर; परंतु साधुओने - मुनियोने सोंप नहीं एटले मंदिरनो वहीवट मुनिश्रीने ताबे करवो नहीं. वहीं ग्रंथकार हरिभद्रसूरिजी
नियो सोंप नहीं' जे या प्रमाणे उपदेश करे छे तेमां खास हेतु छे. हेतु ए के - ते काळे चैत्यवासीओए एवो उपदेश शरु कर्यो हतो के गृहस्थे मंदिर बंधावी साधुयोने ताबे कर,