________________
( २८१ )
दीनतपस्व्यादौ गुर्व
नुज्ञया दानमन्यत्तु ॥ ५-१३ ॥
मूलार्थ — न्यायोपार्जित धननो सेवकवर्गने अनुपरोधपणे दीन, तपस्वी, अतिथि आदि वर्गमां थोडो पण मातापिता आदिनी आज्ञाथी उपयोग करवो तेनुं नाम ते महादान, अने आ रीतथी उलटी रीते जे उपयोग करवो ते दान कहुं छे. " स्पष्टीकरण "
,
शास्त्रमां मार्गानुसारीना गुण वर्णन करतां आचार्य प्रथम गुण ' न्यायसंपन्नविभवः ' दर्शावे छे, एटले धर्मसन्मुख स्थित आत्मा जरुर न्यायथी ज आजीविका, कुटुंब रक्षण आदि कार्यों करे तो ज ते मार्गानुसारी कहेवाय अन्यथा ते मार्ग - बाह्य कहेवाय. आथी धर्मप्राप्त अने प्रथम जगावी गयेल धर्मना लक्षणो जेमां होय ते तेमज दश संज्ञानो निरोधक श्रागमवचन पर श्रद्धालु जन तो अवश्य न्यायथी ज वृत्ति चलावे एमां आर्य जेतुं नथी. महादान भने दाननो भेद आचार्य अहीं दर्शावे छे तेपां ' न्यायवर्तन ' ए मुख्य अने महादान तथा दाननो विभाजक गुण मान्यो छे. अर्थात् न्यायसंपन्नता सिवाय महादानत्व नामक परम गुण कोइ पण आत्मा पामी शके नहीं. अतएव ग्रंथकर्ता श्रादिमां ज ' न्यायात् ' ए पद मूके छे, एटले वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण अने शूद्र ए चार मुख्य आर्य जातियो शास्त्रोमां कही छे, किंतु कालक्रमे