Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

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Page 398
________________ ( ३८७ ) एटले जेने जे वस्तुमा जे व्यक्ति पर अथाग प्रेम के भक्ति होय ते माणस कोइ पण पदार्थमां तेनी स्थापना करी पोतानी मन:कल्पना पूर्ण करे छे. ए प्रमाणेना जगतना असाधारण नियमानुसार साचा परमात्मभक्ते पण पोतानो परमात्म परत्वेनो हृदयराग टेकाववा-दृढ करवा अने तेनुं पूर्ण फल प्राप्त करवा बाह्याकारमा अवश्य हृदयनो भाव आरोपित करी आ परमात्मरूप छे एवी भावना करी, ते परमात्माना चरणे इष्ट पदार्थो धरी पोतानी कृतज्ञता बराबर दर्शावी शके. अतएव आ बाह्यप्रतिष्ठानी आवश्यक्ता कही छे. अहीं प्रतिष्ठाकर्ताना हृदयगत वीतरागभावनो मूर्तिमां आरोप करवो तेनु नाम बाह्यप्रतिष्ठा दर्शावी छे, तेथी प्रतिष्ठाकर्ता स्वहृदयवर्ती परमात्म गुणोना ध्यान माटे बाह्य पदार्थों माटी, रेती, पाषाण, सोनु, रु', हीरा, माणेक, पन्ना विगेरे कोइ पण पदार्थमां भगवाननुं रूप आळेखी आ जिनमूर्ति छे एवं पवित्र ध्यान जरूर करी शके; एमां विरोध जेई काइ नथी. अतएव द्रौपदी आदिए अरण्यभां पवित्र ध्यान माटे जे रेती विगेरेमां जिनमूर्ति आळेखी पूजन कयु हतुं अने तेनाथी जंगलमां पण स्वव्रतर्नु पालन कयु हतुं ते शास्त्रानुसारी अने सयुक्तिक ज कयु हतुं एम आ परथी सिद्ध थयु. ... देवना उद्देशथी स्वात्मगत परमात्म संबंधी निजभावनी प्रतिष्ठा करवी तेनुं ज नाम मुख्य परमात्मप्रतिष्ठा

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