________________
{ २२५ )
चक्रवर्ती ने राजाओ विगेरे धर्मस्वरूप जाण्या पछी, व्रत अने समकित पाम्या पछी जे विलासादि सेवता ते अनासक्ति नहीं किन्तु आसक्ति न हती. आ परथी समजवानुं के जेओ निश्चयनी वातो करी, अध्यात्मनो डोळ घाली, तिथि के अतिथि, रात्रि के दिवस, खाद्य के अखाद्य, गम्य के अगम्यनो विचार बाजु पर मूकी विषयेच्छा - तृष्णाओ पूर्ण करवामां ज लीन बनी, अन्यने अमने आसक्ति नथी, मात्र कर्मोदयना लीधे ज अमारी प्रवृत्तिश्रो चालु छे, जो आसक्तिपूर्वक चेष्टा होय तो ज पुनः कर्मनो बंध था अतएव जिनेश्वरोए शास्त्रमां अध्यवसाए बन्ध मान्यो छे ए प्रमाणे समजावे छे ते प्रति हीं अमे विशेष नथी कहेवा मागता; पण आ लोकोए उपरना भेदो विचारवा तेमज पोतानी चेष्टाओ अनासक्तिपणानी छे (!) ए वात उपर दर्शित स्वरूपनी साथे विचारवी जेथी बेवडा पापबंधथी पोताना आत्माने बचावी लेवाय.
अत्रे चालु श्लोकमां केवल अतिविषयतृष्णानुं स्वरूप ग्रंथकर्ता जगावे छे, जे विषयेच्छाना बलथी कोइ पण आत्मा मूढ अने विवेक मर्यादा रहित थाय. " कामान्धा न पश्यंति" ए न्याये कामीजनो कांइ पण जोइ शके नहीं, एवं परिणीत, अपरिणीत, बाल विधवा, कन्या, रंडा तथा वेश्या गमे त्यां गमन करे, स्वजाति तथा परजातिनो पण विचार जे करे नहीं, रात्रि - दिवसनो विभाग, तिथि - अतिथिनो विभाग पण जे जाळवे नहीं, नितान्त
१५