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(११) वार सेव्या छे, परंतु तेथी आत्मकल्याण जराये थयु नहीं. आवा अावा अनेक विचारो आ मध्यमबुद्धिवर्ग विचारे छे. " उपदेश"
अतः जे आचारोनी खरी दुष्करता अने उत्तमता होय तेवा अभ्यंतर शुद्ध प्राचारोनुं स्वरूपदर्शन उपदेशके आ लोकोने करावq उचित गणाय. ग्रंथकर्ताना वचनमा ‘ासमिति प्रभृति ' ईर्यासमिति विगेरे साधुअोनुं सत्य स्वरूप कहेवू. ते या प्रमाणे-प्रथम तो साधुए स्वात्मशुद्धि माटे अने बाह्य आचारोनी सार्थकता बदल आठ प्रवचनमातानुं पालन करवू जोइए. १-ईयासमिति, २-भाषासमिति, ३-एषणासमिति, ४-आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति, ५पारिष्ठापनिकासमिति, ६-मनोगुप्ति,७-वचनगुप्ति, ८-कायगुप्ति. आमां पांच समिति अने त्रण गुप्ति छे, उभय मली आठ प्रवचनमाता कही छे. "प्रवचनमाता"
प्रवचन एटले जैनसिद्धान्त तेमां जे माता तुल्य माता ते प्रवचनमाता, अर्थात् जेम माता पुत्रनुं सर्वावस्थामां हित ज चाहे अने करे छे तेम प्रा माता पण तेनी सेवा करनार अने तेनी आज्ञामा वर्तनार साधुरूप पोताना पुत्रनुं एकान्त कल्याण ज करे छे. बल्के लौकिक माता कदापि विरोधी पण थइ जाय छ अथवा आ लोकमां पूरतुं हित पण नथी करती त्यां परलोकना हितनी वात ज क्यां रही ? ज्यारे ा लोकोत्तरमाता