Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Keshavlal Jain
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( ३८६) जिनमूर्तिमा आरोप करी, जिनमूर्ति अने वीतरागदेव बन्नेमां अभेदभावना धारण करी जिनमूर्ति पासेथी हृदयस्थ परमात्मगुण भावनानी नितान्त दृढता करे छे, एटले बाह्यप्रतिष्ठा पण प्रतिष्ठाकर्ता तेमज अन्यने पूजन आदि कार्योमां प्रेरक होवाथी ते प्रतिष्ठा पण आभ्यन्तरप्रतिष्ठानी माफक अत्यावश्यक योगियोए मानी छे. किन्तु आभ्यन्तरप्रतिष्ठा कर्या पछी ज बाह्य जिनमूर्तिमा परमात्मभावनो उपचारथी आरोप थाय छे, अने ते कल्पित आरोप होवाथी तेने शास्त्रकर्ता बाह्यप्रतिष्ठा कहे छे. आ रीते बाह्यप्रतिष्ठामां कर्तानो मुख्य देव विषयक आत्मिक भावनो ज आरोप करवाथी आ विषयमां पाठके प्रथम जे शंका उपस्थित करी हती तेनुं समाधान सयुक्तिक थइ जाय छे एटले तत्संबंधमां विशेष वक्तव्य रहेतुं नथी.
अहीं बाह्यप्रतिष्ठा करवानुं मुख्य कारण ए केभक्त आत्मा त्यागभावनी पुष्टि माटे, संसार परनो मोह त्यागवा माटे, विषयो अने उपाधियोनी तुच्छता-क्षणिकताने भाववा माटे, अने परमोपकारी, अकारणबन्धु, संसारभयत्राता, जगज्जनवत्सल, त्रिभुवनोपकारी, दीनजनबन्धु, करुणासिन्धु एवा परमात्माना चरणे स्वेष्ट पदार्थों धरी पोतानी कृतज्ञता दर्शाववाने इच्छा करे तो आ इच्छा परमात्मा संबंधी बाह्य रूप विना तृप्त थाय नहीं. वळी कृतज्ञोए पोतानी कृतज्ञता जरुर दर्शाववी जोइए. यदि न दर्शावे तो ते भक्त उपकारभक्षी अने अधर्मी ज गणाय,

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