Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Keshavlal Jain
View full book text
________________
( ४१५ )
जणायुं के - क्षमा आदिथी अने मैत्र्यादि भावनाथी आ भावरूप बीज " संवर्द्धनीयः " वृद्धिंगत कर.
आ रीते भावरूप बीजवृद्धिनों उपाय दर्शावी फरी तेज बीजवृद्धिनो अन्य उपाय ग्रंथकर्ता जणावे छे
निरपायः सिद्धार्थः,
स्वात्मस्थो मन्त्रराडसंगश्च ॥
आनन्दो ब्रह्मरसश्चिन्त्यस्तत्त्वज्ञमुष्टिरियम् ॥ ८-१५ ॥
मूलार्थ – अपाय वगरनो, जेनाथी सर्व अर्थनी सिद्धि थाय एवो, स्वात्मामा रहेनार, सर्व मंत्रोमां मुख्य मंत्रभूत, उपाधि रहित, आनन्दस्वरूप अने ब्रह्म, सत्य, तप अने ज्ञान एनो रसरूप तेमज सर्वज्ञ शासनमां तत्त्वज्ञाननी खास मुष्टिरूप आ प्रतिष्ठासमयगत भावनो वारंवार विचार करवो.
" स्पष्टीकरण "
जेवी रीते प्रतिष्ठासमयमां लभ्य उत्तम भावनुं संरक्षण- संवर्धन माटे आपणे आगल विचार करी गया तेम अहीं शास्त्रकर्ता फरी ते ज भावनी वृद्धि माटे आ भावनी महत्ता अने तेनुं फल विचारवानुं जणावे छे, अर्थात् पदार्थ परनो मोह, तेनुं स्वरूप, तेनी महत्वता अने तेना फलो

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430