________________
( १४१ ) आधारे उपजती नथी; किन्तु-" अधिकरणाश्रयं कार्य" अत्र अधिकरण शब्द सामान्येन आधारवाचक छे तो पण प्रकरणवशात् मननुं जे अधिकरण-आश्रयस्थान शरीर ते ज लेवू. हेतु ए के-शरीरना आधारे ज मननी अवस्थिति होय छे अने क्रियाओ सर्व शरीरद्वाराए ज बने छे. तत्त्व एटलो केमनथी इच्छाप्रो थाय, पश्चात् शरीरद्वारा आत्मा चेष्टाओ-नवा नवा व्यापारो करे छे. अतः जे चित्त इच्छाओ करे छे ते ज चित्तनुं नाम अहीं धर्म जाणवो. एटले के-शरीरद्वारा जे जे कार्यों थाय छे ते धर्म न समजवो, किन्तु ते तो चित्तरूप धर्मनां व्यापारकार्यों जाणवा. आ परथी जेनो शरीरनी यथेष्ट अमुक जातनी क्रियाप्रवृत्तिने धर्मपणे निर्देश करे छे तेश्रो भ्रान्त छे-धर्मलक्षणथी अनभिज्ञ के एटलो निर्णय समजवो. टुंकमां टीकाकारना मतथी दान, पूजा, सामायिक
आदि ए बधुंये धर्मनो व्यापार छे. धर्म तो प्रांतरचं जे तथाप्रकारचें मन ते जाणवो. छतां ा क्रियाओने धर्मतया प्राज्ञपुरुषो व्यवहार करे छेते तो धर्मनो क्रियामां कारणनो उपचार करीने ज, एटले कारण कार्यने जरुर पेदा करे. जे कारण कार्यने पेदा न करे ते कारण ज न कहेवाय. आथी जेओ क्रियाप्रवृत्ति विना अथवा क्रिया अंध के एम कही क्रिया नकामी जणावी स्वात्माने मननी पवित्रता मात्रथी धर्मी माने के तेमो पण नितान्त भ्रान्त छ एम समजवु, कारण अहीं तो टीकाकार, क्रियोत्पादक एवं जे मन तेने ज धर्म जणावे छे. प्रथम कह्या प्रमाणे अहीं विशेषणसमास स्वीकारवाथी 'चित्त' ए विशेषपदार्थ