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( ४१४ ) जनोने जेसुख होय ते सुख धनमां लुब्ध अने ज्यांत्यां भटकनार आत्माओने क्याथी होय ?" एकान्त आत्मिक सुख अने स्वकल्याणनी सिद्धि लोभनो परित्याग करी संतोष धारवाथी ज थाय छे. लोभ एटलो बूरामां बूरो छे के चतुर्दश पूर्वधरो पण उपशमश्रेणि पर आरूढ थया पछी त्यांथी लोभना उदयथी गोथु खाइ निगोदमां प्रवेश करे छे. आम विचारी अन्तमां समजुए लोभनो अवश्य त्याग करवो उचित छ, अर्थात् लोभनो नाश करवा संतोषरूप खड्ग धारण करवू.
आ रीते क्रोध, मान, माया, लोभना प्रतिविरोधी क्षमा, मृदुता, आर्जवता अने संतोष संबंधी उपरोक्त भावना हृदयमां धारण करी, प्रथम कही गयेल प्रतिष्ठासमयमां प्राप्त थयेल अल्प शुभ भावनी वृद्धि करवी अर्थात् आ प्रमाणे जलनुं सिंचन करी आ भावरूप बीजने वृद्धिंगत करवं. वळी शास्त्रकर्ता फरी आ बीजवृद्धिनो उपाय “ मैत्र्यादिसंगतैः " ए पदथी विशेष जणावे छे. मैत्री, करुणा, प्रमोद, माध्यस्थ्य ए चारे भावनाओ प्रतिक्षणे विचारवी. आ चार भावनाओ सम्यक्त्वने पुष्ट करे छे. आनुं विस्तृत स्वरूप अमे आगल जणावी गया छीए, ते स्वरूपने ध्यानमां उतारी तेनुं स्वरूप विचारबु, आ प्रमाणे आ चार भावना अने क्षमा आदि चार भावोनुं स्वरूप नित्य विचारवाथी, तेनुं ध्यान करवाथी अवश्य अंतरात्मा विशुद्धतर थाय छे, उपरोक्त अलभ्य भावनी वृद्धि पण थाय; माटे अहीं ग्रंथकर्ताए