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मैन्यादि गुणो प्राप्त थाय छे, ए वातनो सामान्य निर्देश ग्रंथकर्ता कहे छे.
एते पापविकारा ____न प्रभवंत्यस्य धीमतः सततं । धर्मामृतप्रभावाद्
भवंति मैत्र्यादयश्च गुणाः ॥४-१४ ॥ मूलार्थ–उपर जे पापविकारो जणाव्या ते पापविकारो धर्मतत्त्व पामेल आ बुद्धिवान् आत्माने निरंतर उद्भवता नथी, तेमज धर्मरूपी अमृतपानना प्रभावथी मैत्री १, प्रमोद २, करुणा ३ अने मध्यस्थ ४ ए चार गुणो अवश्य उत्पन्न याय छे. " स्पष्टीकरणं"
विशिष्ट रसायण खाधा पछी रोगादि विकारो खानारने उत्पन्न थता नथी, एवं पूर्वे कह्या प्रमाणे गुर्वादिकना उपदेशथी अथवा यथाभव्यत्वना परिपाकथी 'धर्मतत्व ' नो आविर्भाव थया पछी आगल जे पापविकारोनुं विस्तृत स्वरूप अमे कही गया ते अनादिना अभ्यस्त पापविकारोन कटुक फल अने तेनुं यथास्थित स्वरूप समजवाथी, तेमज तेनो अनुभव-स्मरण जागृत होवाथी, अतएव मारुं अप्राप्य दुर्लभ एवं धर्मतत्त्व 'फरीने विनाश न पामो' ए रीते सभयपणे आ धर्मी प्रात्मानो