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प्रणिधानं तत्समये
स्थितिमत्तदधः कृपानुगं चैव ॥ निरवद्यवस्तुविषयं
परार्थनिष्पत्तिसारं च ॥ ३-७ ॥
मूलार्थ - धर्म संबंधी जे जे मर्यादा - प्रतिज्ञा स्वीकारी होय तेमां जे अविचलपणुं ने पोताथी नीची स्थितिनाधर्मप्रतिज्ञाहीन मनुष्यो उपर अनुकंपा करवी, एवं जे कार्योंथी अन्यनो उपकार थाय अने विशेष पाप न होय, तथा अंगी - कृत धर्ममर्यादाने अनुकूल ज वस्तुनुं ध्यान बन्या रहे, एवा परिणामने 'प्रणिधान ' नामे आशय को छे.
" प्रणिधान "
स्पष्टीकरण - ' प्रणिधानं प्रणिधिः ' प्रणिधान ते ज प्रणिधि. अहीं प्रणिधाननो सामान्य अर्थ एटलो ज के अंतःकरणानी मक्कमता, एटले पवित्र हृदयनी खास दृढता. या दृढता पण अनेक प्रकारनी छे तो ते दृढता केवी ? अने क्या क्या प्रकारनी ? यहीं समजवी, एवं श्रा आर्यामां ' प्रणिधान ' ए विशेष्य पद अने ते सिवायना अन्य तेना विशेषण पदो छे. अतः श्रा 'प्रणिधान ' पदना विशेषणपणे अन्य पदोनी व्याख्या करवानुं खास ध्यान राखनुं, एटले प्रणिधान नामे ग्राशय कोने समजवो ? ते विशेषणद्वारा ग्रंथकर्ता समजावे छे.