Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Keshavlal Jain
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( ३९९ )
वचन - आगमरूप अग्नि-संयोग भावरूप पारो जीवात्माने शोधी शके नहीं माटे अहीं वचनरूप अग्निनी नितान्त आवश्यक्ता अपेक्षित छे, तेमज भावनी पुष्टि बाह्य मूर्त्तिद्वाराए ज सावलंबन ध्यानकर्त्ताओने थाय छे परंतु ते विना था नहीं, अतः बाह्यप्रतिष्ठा शास्त्रकर्ताए सफल कही.
अरे ! बाह्य मूर्त्तिगत निज भावरूप प्रतिष्ठा कही छे एवं कर्ता शाथी जाणवुं ? ए शिष्य हृदयगत प्रश्ननो उत्तर आचार्यश्री अहीं करे छे.
एषा च लोकसिद्धा, शिष्टजनापेक्षयाऽखिलैवेति ॥ प्रायो नानात्वं पुनरिह,
मन्त्रगतं बुधाः प्राहुः ॥ ८-१० ॥
मूलार्थ - आ प्रतिष्ठा पुरुषपरंपरागत अने लोक तथा लोकोत्तर सर्वत्र शिष्टजनोनी अपेक्षाए स्वीकृत छे, मात्र आ प्रतिष्ठामां बहुधा विशेष तत्त्व तो मंत्रोपचार संबंधी आचार्यो जणावे छे.
" स्पष्टीकरण "
शास्त्रमां आ प्रतिष्ठा आचार्यपरंपराथी चाली आवे छे अने विशिष्ट भव्य आत्माओनी अपेक्षाए लोक लोकोतर पदार्थोमां ए ज निजभाव स्थापनरूप प्रतिष्ठा

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