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( १९८) अविपरीत यथार्थ लिंगो-लक्षणो तत्वज्ञपुरुषोए आ प्रमाणे कह्या छे. "स्पष्टीकरण"
गत प्रकरणमां जे कयुं ते प्रमाणे वर्तवाथी जरुर धर्मनुं यथार्थ स्वरूप अने तेनी सिद्धि आत्मा पामी शके ए संदेह रहित छे. आ धर्मसिद्धिने योग्य पुरुषो-जेने धर्मर्नु तत्त्व अने तेनी सिद्धि करवानी अपेक्षा होय एवा जनो-अल प्रयत्नथी केम जाणी शके एवा उद्देशथी धर्मतत्त्वना लिंगो-ल क्षणो तत्त्वदर्शी जनोए कह्या छे, जे लिंगो अहीं बतावाशेः लक्षणोथी 'धर्मसिद्धि' जाणी शकाय तेमज 'धर्मसिद्धि'ना अर्थीयो लक्षण जाण्या विना धर्मसिद्धि पामी शके नहीं एटले आ अधिकारमा ते ज लक्षणो परमार्थज्ञाता पूर्वपुरुषोए जे प्रमाणे कह्या छे ते ज लक्षणो आचार्य अहीं दर्शावे छे.
आ लक्षणो प्रथम ग्रंथकार स्वरूपमात्रथी शरुआतमां दर्शावे छे.
औदार्य दाक्षिण्यं __पापजुगुप्साथ निर्मलो बोधः । लिंगानि धर्मसिद्धेः
प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥४-२॥ मूलार्थ-उदारता १, दाक्षिण्यता २, पापनी निंदा ३,