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( २३३) एक मनुष्य केवळ धर्मना माटे हाट, हवेली, व्याज, ग्रामसंरक्षण अने सुवर्णादिनो संचय करतो होय-श्रा बेमां पहेलांने स्वार्थ, तृष्णा, लोभ अने पापबुद्धि होवाथी तेने प्रारंभजन्य पापबंध अवश्य थाय छे; कारण ए के स्वार्थने माटे स्त्री आदिना मोहना लीधे भारंभादि सेवनारमां कदापि ते ते मारंभादिमां शुभ परिणाम संभवतो नथी, ज्यारे बीजामां स्वार्थ, लोभ अने दुष्ट परिणामो न होवाथी केवल धर्म तथा शासननी अपूर्व भक्ति होवाथी शुभ परिणाम संभवे छे. एटले तेने शुभबंध ज थाय ए ज वात शास्त्रोमां विस्तारथी ज प्रश्नोत्तर पूर्वेक जणावी छे. __फरी आ विषयमा अहीं श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्यायजी त्रीजो प्रकार दर्शावे छे.-' गुणतः शब्दार्थतस्तुल्ये तत्त्वे हिंसादीनां ' गुणथी-शब्दार्थथी हिंसादिनुं स्वरूप समान होय परंतु नामभेदथी पोतपोताना शास्त्रोमां भिन्न भिन्न शब्दोथी दर्शावेल होय. भावार्थ ए के-सर्व दर्शनकारोए पोतपोताना मतोमा हिंसादिनुं स्वरूप स्पष्ट जणावी तेनो निषेध दर्शान्यो छे, एवं जैनो पण हिंसादिनुं स्वरूप स्पष्ट कर्या पछी तेना त्याग माटे महाव्रत शब्द, पातंजल अकरण शब्द, बौद्धो नियम शब्द कहे छे. एटले मात्र अहीं नामभेद सिवाय अन्य कांइ तत्व नथी. वस्तुतः महाव्रत, अकरण अने नियम ए त्रणेनो एक ज भाव शब्द-व्युत्पत्ति करवाथी उपस्थित थाय छे, तथापि महाव्रत कथनकर्ता अमारुंजैनागम सुंदर छे अक