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(४६) कयु अने ते आत्मा मरी गयो. हवे बीजी क्षणमा उत्पन्न मात्माए-पूर्वात्माए कृतपुण्य-पापर्नु फल अनुभव्यु. आथी जेणे पापकर्म कर्यु तेणे भोगव्युं नहीं अने जेणे ते कर्म उपायु नथी तेणे अनुभव्यु. एटले करे कोइ अने अनुभवे कोइ. चोरी या बदमासी काइ करे अने तेनी शिक्षा अन्य भोगवे ए शुं न्याय्य गणाय खरो ?
आ रीते उभयपक्षमां अनेक दोषो उद्भववाथी ग्रंथकर्ता कहे छ के- प्रात्मा "परिणामी" भावार्थ के अात्मा भिन्न भिम अवस्थामां, भिन्न भिन्न भावोमा परिमनभाववालो छे. पांचे गतियोमां गमन स्वभाववान् , अलग अलग भवोमां पर्यटन करनार, बाल, युवा भने वृद्ध आदि अवस्था अनुभवनार, दारिद्रय, रोग, सुख, दुःख पर्यायोनो भोक्ता, चैतन्य स्वरूपी आत्मा छे. निदान के-द्रव्यनी अपेक्षाए आत्मा नित्य चैतन्य स्वरूपीछे, ने पर्यायनी अपेक्षाए अनित्य जन्म, मृत्यु, दारिद्रय, रोग, शोक, देव, मनुष्यादि विविध भावोनो अनुभविता कह्यो छे. परिणाममुं लक्षण टीकाकार उपर कथित भावने अनुकूल जणावे छे. "परिणामो ह्यार्थातरगमनं न सर्वथा व्यवस्थानं । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः " ॥१॥ " एक भाव-अवस्था मूकीने अन्य अवस्थामां गमन करवू, सर्वथा एक ज भावमां स्थित न रहेQ, सर्वथा विनाश पण जेनो न थाय तेनुं नाम परिणामस्वरूपवेत्तानो परिणाम माने छे " निष्कर्षआत्मानी जेम अस्तिता सिद्ध छे तेम ते परिणामी पण सिद्धन