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परमार्थ ए के - सर्व बाह्य अभ्यंतर व्यवहारनो मूल आधार जीव, कर्म, जगत् विगेरे पदार्थोनी शुद्ध - निर्दोष मान्यता पर रह्यो छे. अतएव पदार्थों अनादि अकर्तृक अने नित्यानि - त्यत्वरूप धर्मवान् ए रीते ज्यां प्ररूप्या होय अर्थात् श्रात्मा, कर्म, जगत् आदि पदार्थों द्रव्यास्तिक नयनी मान्यतामां नित्य अने पर्यायास्तिक नयनी मान्यतामां अनित्य, एवं उत्पाद, व्यय भने स्थितिरूप धर्मवान् छे- श्रावुं सुंदर अबाध्य स्वरूप ज्यां वर्णव्युं होय ते शास्त्रने तापशुद्ध विद्वानो समजे छे. आत्मा आदि पदार्थो कंचनकुंभना दृष्टांते नित्यानित्य धर्म - वान् छे ए वात बराबर गळे उतरे तेवी छे. कंचनकुंभ फुटी जवाथी तेना कुंडल के कडा विगेरे बनाव्या तदपि कंचन तो
कायम ज रहुँ; मात्र कुंभ आकारनो नाश ने कुंडलादि श्राकारनी उत्पत्ति थइ एवं आत्मा पण अमुक गति अपेक्षया नाश ने उत्पन्न थाय छे ज्यारे आत्मत्वरूपेण सर्वत्र विद्यमान ज रहे छे. आ स्थितिमां प्रथम कहेल विधि, निषेधवाक्योनी साफल्यता तथा विविध क्रियाकांडोनी साफल्यता अच्छी रीते बनवा संभव छे, परंतु एकान्त नित्य अथवा एकान्त नित्य आत्मवादमां सर्व क्रियाओ, उपदेशो अर्थशून्य - अरे ! छार पर लिपण जेवा समजवा माटे विद्वानो तापशुद्धि, कषशुद्धि अने
शुद्धिकर्या पछी ज समुचित रीते करे छे. बस कष, छेद
तारूप त्रिकोटिये शुद्ध जे शास्त्र ते ज परिशुद्ध जाणवुं. अतः तदुक्त आज्ञाच ज हितार्थीने शिरसावंद्य गणाय.