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(२५६) "सुकृतादिभावेऽपि" ए पदथी सुकृत-दुष्कृतकर्म, प्रयत्न, चियति आदि कारणो विद्यमान छतां ज्यां सुधी काल न पाके त्यां सुधी अंतिम पुद्गलपरावर्तपणुं प्रात्माने अप्राप्य होय छे, एवं मोक्ष अभिलाषा पण दुर्लभतर होय छे. अर्थात् अंतिम पुद्गलपरावर्तपणामां काल ए मुख्य कारण के अने कर्म, प्रयत्न, नियति आदि गौण कारणो मान्या छे. आज हेतुथी उत्तम धर्मरूपी औषध पण अंतिम पुद्गलपरावर्तकालप्राप्त
आत्माने श्राप्युं होय तो ते गुणकारक थाय अने अन्यने आप्यु होय तो नितान्त दोषकारक ज थाय छे, आ प्रमाणे सिद्धान्तवेत्ताओ भार दइने कहे छे अने निपुणतया जाणे छे. अहीं आर्यामां 'सुकृतादिभावेऽपि ' ए पदना बदले 'कर्मादिभावेऽपि ' ए, पाठान्तर छे, पण आ पाठान्तर मकवाथी छंदभंग थाय छे. बाकी अर्थमां कांई दोष जणातो नथी तेम ज 'निपुणं' ए क्रियाविशेषण पद होवाथी 'जेम निपुण होय तेम जाणे छे.'
हवे ' लोकोत्तरतश्वप्राप्ति' समकितना लाभमां अंतिम पुद्गलपरावर्तनकाल ज प्रधानतया कारण छ, अने अन्य साधनो प्रधानतया कारणभूत नथी एनुं शुं कारण ? ए वात अहीं स्पष्ट करे छे. नागमवचनं तदधः
सम्यक्परिणमति नियम एषोऽत्र।